लाड़ली बहन योजना पर लटकी तलवार, सुप्रीम कोर्ट ने दिया इस राज्य को अल्टीमेटम

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को महाराष्ट्र सरकार को उसकी मुफ्त योजनाओं को तब तक स्थगित करने की चेतावनी दी जब तक कि वह उस निजी पक्ष को मुआवजा नहीं दे देती, जिसकी जमीन पर उसने छह दशक से अधिक समय पहले ‘अवैध’ तरीके से कब्जा कर लिया था।

महाराष्ट्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राज्य के पास ‘मुफ्त सुविधाओं पर बर्बाद करने’ के लिए काफी राशि है, लेकिन उसके पास उस निजी पक्ष को मुआवजा देने के लिए पैसा नहीं है, जिसने अपनी जमीन उसके हाथों अवैध रूप से गंवा दी है।

इस मामले में महाराष्ट्र का आचरण एक ‘आदर्श राज्य’ जैसा नहीं होने की बात कहते हुए उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि वह निर्देश दे सकता है कि मुआवजा राशि का भुगतान नहीं होने तक सभी मुफ्त योजनाएं निलंबित रहेंगी। न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि राज्य ने मुआवजे के तौर पर 37.42 करोड़ रुपये देने की पेशकश की है, जबकि आवेदक के वकील ने दलील दी है कि यह करीब 317 करोड़ रुपये बैठता है।

महाराष्ट्र की ओर से पेश हुए अधिवक्ता निशांत आर कटनेश्वरकर ने पीठ से तीन सप्ताह का समय देने का आग्रह करते हुए कहा कि मामले पर उच्चतम स्तर पर विचार किया जा रहा है और ‘रेडी रेकनर’ के अनुसार मुआवजे की गणना के लिए कुछ सिद्धांतों का पालन किया जाना आवश्यक है।

पीठ ने कहा, ‘हम आपको तीन सप्ताह का समय देते हैं और अंतरिम आदेश पारित करते हैं कि जब तक हम अनुमति नहीं देते, तब तक महाराष्ट्र राज्य में कोई भी मुफ्त योजना लागू नहीं की जानी चाहिए। हम ‘लाडली बहिन’, ‘लड़का भाऊ’ को रोक देंगे।’

इस साल की शुरुआत में राज्य सरकार द्वारा घोषित ‘मुख्यमंत्री माझी लड़की बहिन योजना’ के तहत, 21 से 65 वर्ष की आयु वर्ग की उन पात्र महिलाओं के बैंक खातों में 1,500 रुपये हस्तांतरित किए जाने हैं, जिनकी पारिवारिक आय 2.5 लाख रुपये से कम है। इसी तरह, ‘लड़का भाऊ योजना’ के तहत, योजना का प्राथमिक लक्ष्य युवाओं को वित्तीय सहायता और व्यावहारिक कार्य अनुभव प्रदान करना है।

सुनवाई के दौरान, कटनेश्वरकर ने कहा कि वह अदालत द्वारा पारित निर्देशों का पालन करते हैं, लेकिन इस तरह की टिप्पणियों के कारण सुर्खियां बनती हैं। न्यायमूर्ति गवई ने कहा, ‘हो सकता है। हमें इसकी चिंता नहीं है। हम समाचार पत्र नहीं पढ़ते। हमें नागरिकों के अधिकारों की चिंता है।’

पीठ ने कहा कि वह ये टिप्पणियां करने के लिए बाध्य है। पीठ ने पूछा, ‘आपके पास सरकारी खजाने से मुफ्त में दी जाने वाली चीजों पर बर्बाद करने के लिए हजारों करोड़ रुपये हैं, लेकिन आपके पास उस व्यक्ति को देने के लिए पैसे नहीं हैं, जिसे कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना जमीन से वंचित किया गया है।’

शीर्ष अदालत द्वारा पारित पहले के आदेशों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि उसने मामले में ‘स्पष्ट तथ्य’ दर्ज किए हैं। उसने कहा कि चूंकि अदालत 9 अगस्त को दायर हलफनामे में राज्य द्वारा अपनाए गए रुख से संतुष्ट नहीं थी, इसलिए उसने राज्य के वकील से मुख्य सचिव से चर्चा करने और एक उचित प्रस्ताव लाने के लिए कहा था।

पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता की जमीन को राज्य ने अवैध रूप से अपने कब्जे में ले लिया था और बाद में इसे अर्मामेंट रिसर्च डेवलपमेंट इस्टेब्लिशमेंट इंस्टीट्यूट (ARDEI) को आवंटित कर दिया गया था। पीठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय तक मुकदमे में सफल होने के बावजूद, आवेदक को अपना वैध हक पाने के लिए दर-दर भटकना पड़ा।

पीठ ने कहा, ‘हम (राज्य की) दलीलों से प्रभावित नहीं हैं। यदि राज्य सरकार कुछ मामलों में तत्परता से काम करना चाहती है, तो निर्णय 24 घंटे के भीतर लिए जाते हैं। हालांकि, हम राज्य सरकार को एक उचित मुआवजे पर काम करने के लिए कुछ और समय देने को इच्छुक हैं।’

मामले में अगली सुनवाई 28 अगस्त को होगी। पीठ ने कहा, ‘यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यदि राज्य सरकार उस तिथि तक ऐसा कोई प्रस्ताव लेकर नहीं आती है, तो हम उचित आदेश पारित करने के लिए बाध्य होंगे।’

राज्य के वकील ने कहा कि उन्हें हलफनामा दाखिल करने की अनुमति दी जाए, ताकि वे अपने द्वारा उठाए गए कदमों को बता सकें। पीठ ने कहा कि राज्य अगली सुनवाई की तिथि से पहले हलफनामा दाखिल कर सकता है।

पीठ ने कहा, ‘लेकिन अगर हमें लगता है कि विवेक का प्रयोग नहीं किया गया है और उसे (आवेदक को) परेशान किया जा रहा है… तो हम न केवल नए अधिनियम के अनुसार सभी मुआवज़े का भुगतान करने का निर्देश देंगे, बल्कि हम यह भी निर्देश देंगे कि जब तक राशि का भुगतान नहीं हो जाता, तब तक आपकी सभी मुफ़्त योजनाएं निलंबित रहेंगी।’

पीठ ने कहा, ‘हम आपको चेतावनी देते हैं कि अगर हमें यह रुख सही नहीं लगा तो नए अधिनियम के अनुसार मुआवजा भुगतान करने के निर्देश के अलावा, दूसरा निर्देश आपको और अधिक प्रभावित करेगा।’

सर्वोच्च अदालत महाराष्ट्र में वन भूमि पर इमारतों के निर्माण से संबंधित एक मामले की सुनवाई कर रही थी, जहां एक निजी पक्ष ने उच्चतम न्यायालय के जरिए उस भूमि पर कब्जा प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है जिस पर राज्य द्वारा ‘अवैध रूप से कब्जा’ किया गया था। राज्य सरकार ने दावा किया है कि उक्त भूमि पर केंद्र के रक्षा विभाग की एक इकाई एआरडीईआई का कब्जा है।

सरकार ने कहा कि बाद में, एआरडीईआई के कब्जे वाली भूमि के बदले निजी पक्ष को भूमि का एक अन्य भूखंड आवंटित किया गया था। हालांकि, बाद में यह पाया गया कि निजी पक्ष को आवंटित भूमि को वन भूमि के रूप में अधिसूचित किया गया था। पीठ ने 23 जुलाई के अपने आदेश में कहा कि निजी पक्ष, जो शीर्ष अदालत तक सफल रहा है, को उसके पक्ष में पारित ‘डिक्री’ के लाभों से वंचित नहीं किया जा सकता है।

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